जब हम मंदिर जाते हैं तो हमारी नजर भगवान पर होती है लेकिन मंदिर के पुजारी की नजर हमारी जेब पर होती है कि कितना पैसा चढ़ाएगा। कई जगह तो ठाकुरजी के दर्शन के लिए दो रास्ते होते हैं। एक दक्षिणा वाला और एक बिना दक्षिणा का। अगर आप पैसा देते हैं तो आपको VIP रास्ते से दर्शन कराया जायेगा। जिससे आप ठाकुरजी के नजदीक पहुंचकर उनका चरण छू सकते हैं और उनको निहार सकते हैं। वही अगर दक्षिणा नहीं देते हैं तो आम लोगों के साथ दर्शन करके चलते बनना पड़ता है। मगर कोई यह नहीं सोचता कि मंदिर का पुजारी तो रोज ठाकुरजी की चरण धूलि लेता है फिर भी उसका कल्याण नहीं हुआ। वह अभी भी दूसरों के चढ़ावा का इंतजार कर रहा है। ये धरम के नाम पर धंधा नहीं तो और क्या है। इसलिए पहले भक्ति को समझे की भक्ति क्या होती है।
भक्ति क्या है उसको समझ कर भक्ति करना चाहिए। भगवान राम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश दिया था । जो इस प्रकार है :-
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥
- नवधा भक्ति, रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड
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